सुलगती रूहें बिखर गईं रातों में
सुलगती रूहें बिखर गईं रातों में, धुआँ उठता रहा सवालातों में। सन्नाटे चढ़ गए हैं दीवारों पर, गूँज बाकी है सूनी हवालातों में। कोई दस्तक हुई थी कब की मगर, दर खुला ही नहीं हकीकतों में। शहर सोया नहीं सदियों से मगर, नींद बँटी रही विरासतों में। - जितेंद्र राऊत